केचन जनाः अस्माकं सम्बन्धिनः न भवन्ति। परन्तु सम्बन्धेभ्यः अपि विशिष्टाः वर्तन्ते। एतत् कामं मैत्रीं कथयतु ईशकृपा वा।*
कुछ लोग हमारे रिश्तेदार नहीं होते पर
रिश्तों से भी विशेष होते हैं ।
इसे चाहे मित्रता कह लें या
फिर ईश्वर की कृपा: *_शरीर नाशवान् है और उसे जाननेवाला शरीरी अविनाशी है—इस विवेकको महत्त्व देना और अपने कर्तव्यका पालन करना—इन दोनोंमेंसे किसी भी एक उपायको काममें लानेसे चिन्ता-शोक मिट जाते हैं।_ *_तुम्हारे पास धन है और तुम प्रचुर धन कमाते हो, तुम ऊँचे अधिकारी हो और बहुत लोग उच्च पदके कारण तुम्हारी प्रतिष्ठा करते हैं, परन्तु तुम्हारा जीवन यदि ईश्वर-विश्वास, सर्वभूतहित, त्याग, प्रेम आदि दैवी गुणोंसे सम्पन्न नहीं है और तुम कामना, क्रोध, लोभ तथा अहंकारके फंदेमें फँसे दिन-रात अशान्तिका अनुभव करते हो, अंदर-ही-अंदर जलते रहते हो तो तुम न तो अभी सुखी हो, न भविष्यमें ही तुम्हें सुख मिल सकता है |_*
*_कामनावाला मनुष्य निरन्तर अभावकी आगमें जलता है और कामनापूर्तिमें लोभ तथा कामनाकी अपूर्तिमें क्रोध-क्षोभके वशमें होकर दुःखी तथा विवेकशून्य हुआ रहता है |_क्रोध तो मनुष्यको राक्षस बना देता है, वह इतना नृशंस हो जाता है कि अपनेपर तथा दूसरों पर घातक प्रहार कर बैठता है, ऐसी हानि पहुँचा देता है कि जिसके लिये उसे स्वयं भारी पश्चात्ताप करना पड़ता है |_*
*_लोभ तो पापका बाप ही है | लोभी मनुष्य ऐसा कौन-सा जघन्य पाप है, जो नहीं करता | इन सबका मूल है अविद्या-जनित अहंकार |_*
*_अतएव इन सबसे बचकर जो ईश्वरपर अटल विश्वास रखता है, वही सुखी रहता है और उसीका भविष्य भी सुखपूर्ण होता है |_*_‘दुर्गुण-दुराचार दूर नहीं हो रहे, क्या करूँ !’ –ऐसी चिन्ता होनेमें तो साधकका अभिमान ही कारण है और ‘ये दूर होने चाहिये और जल्दी होने चाहिये’ –इसमें भगवान्-के विश्वासकी, भरोसेकी, आश्रयकी कमी है |_*
*_दुर्गुण-दुराचार अच्छे नहीं लगते, सुहाते नहीं, इसमें दोष नहीं है |_*
*_दोष है चिन्ता करनेमें | इसलिये साधकको कभी चिन्ता नहीं करनी चाहिये |_ *_बच्चा तो निरंतर मां के अनुगत रहता है। कहीं मां डांटती है तो वह उस से बचने के लिए मां की ही गोद में मुंह छुपाता है। वह और क्या करे? मां के सिवा और किसी को जानता ही नहीं। कृपा मार्ग के पथिक की भी यही दशा होती है।_*